Monday, June 4, 2018


मेरी दहलीज के उग आए हैं कान
नुक्कड़ से गली को मुड़ती
हर पदचाप में तुम्हारी आहट तलाशते ।

चश्पा हो गयीं हैं
खिड़की पर दो आंखें
बिना पलक झपकाए
देखती उस मोड़ को
जहां पर बिला गये थे तुम
बिना एक बार भी पलट कर देखे।


दरवज्जे से टिक
पथराया हुआ
यह खोखल पिंजर
इंतजार में है
अपने गौतम के राम बन लौट आने के ।

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