Monday, June 4, 2018


मेरी दहलीज के उग आए हैं कान
नुक्कड़ से गली को मुड़ती
हर पदचाप में तुम्हारी आहट तलाशते ।

चश्पा हो गयीं हैं
खिड़की पर दो आंखें
बिना पलक झपकाए
देखती उस मोड़ को
जहां पर बिला गये थे तुम
बिना एक बार भी पलट कर देखे।


दरवज्जे से टिक
पथराया हुआ
यह खोखल पिंजर
इंतजार में है
अपने गौतम के राम बन लौट आने के ।

Sunday, June 3, 2018


मैंने पढ़ी एक कविता
जो लिखी
टेरेस पर के गमले में
अंकुआए बीज की
कुलमुला कर आंख खोलती
नन्हीं दो पत्तियों ने,
और जो रची
खिड़की सामने के अमलतास के
इकलौते बासंती रेशमी गुच्छे पर झूलती
सनबर्ड ने,
वो जो कही
चोंच में तिनका दबाए
घोसला बनाती
दूर से उड़ आती
चिड़िया ने,
और अखबार के पन्नों पर
जम कर सूख गए
कत्थई थक्कों पर
ज्यों उचक आई
हल्की हरी दूब।


03.04.18