मेरी दहलीज के उग आए हैं कान
नुक्कड़ से गली को मुड़ती
हर पदचाप में तुम्हारी आहट तलाशते ।
चश्पा हो गयीं हैं
खिड़की पर दो आंखें
बिना पलक झपकाए
देखती उस मोड़ को
जहां पर बिला गये थे तुम
बिना एक बार भी पलट कर देखे।
पथराया हुआ
यह खोखल पिंजर
इंतजार में है
अपने गौतम के राम बन लौट आने के ।